अयोध्या शहर – प्रेम, भक्ति और संघर्ष की कहानी
कहने को तो अयोध्या भगवान श्रीराम की नगरी है, लेकिन यहाँ की हवाओं में प्रेम भी घुला हुआ है। यहाँ के लोगों के दिल सच्चे सोने की तरह खरे हैं। अयोध्या अपने मंदिरों, राम भक्तों और भव्य आरती के लिए प्रसिद्ध है। मेरी यह नई कहानी भी अयोध्या की उन्हीं पवित्र गलियों से शुरू होगी और वहीं समाप्त होगी।
अयोध्या – सरयू घाट, सुबह का समय
"ईश्वर सत्य हैं, सत्य ही शिव हैं, शिव ही सुंदर हैं।
जागो उठकर देखो, जीवन ज्योत उजागर है।"
सरयू घाट पर स्थित प्राचीन शिव मंदिर की सुबह इसी भक्ति गीत से होती थी। और यह भजन जिस मधुर आवाज़ में गूँजता था, वह थी वैदेही की। वैदेही, अयोध्या में रहने वाली एक साधारण-सी लड़की थी, लेकिन महादेव की परम भक्त भी थी और साथ ही एक शिक्षिका भी।
"अरे, यह तो वैदेही की आवाज़ है, मतलब सुबह के चार बज गए!" – यह कहते हुए पुजारी जी भी जाग गए।
वैदेही हर दिन सुबह चार बजे शिव मंदिर आकर स्वयं उसकी सफाई करती और फिर आरती करती थी। उसकी भक्ति से ही जैसे पूरे अयोध्या की सुबह होती थी।
मंदिर से घाट की ओर
वैदेही आरती समाप्त कर भक्तों को आरती का प्रसाद देने लगी। सूरज की रोशनी अब पूरी तरह से फैल चुकी थी, और घाट पर श्रद्धालुओं की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। आरती के बाद, जैसे ही वैदेही मंदिर से बाहर निकली, मठ के महंत जी रास्ते में मिल गए।
"प्रणाम महंत जी," – वैदेही ने दोनों हाथ जोड़कर आदरपूर्वक कहा।
महंत जी ने उसे आशीर्वाद दिया –
"खुश रहो बिटिया, कैसी हो?"
"अच्छे हैं महंत जी। आरती पूरी हो गई, अब स्कूल के लिए घर जा रही हूँ।"
"अच्छा, जाओ बिटिया, खूब आगे बढ़ो," – महंत जी आशीर्वाद देकर आगे बढ़ गए, और वैदेही घाट से होते हुए अयोध्या की गलियों में चली आई।
अयोध्या की गलियाँ और मिठाइयों की खुशबू
अयोध्या की गलियाँ संकरी ज़रूर थीं, लेकिन उनमें हमेशा चहल-पहल बनी रहती थी। वैदेही एक मिठाई की दुकान पर रुकी। दुकान का नाम था "गुप्ता मिष्ठान भंडार"।
"काका, प्रणाम। जल्दी से कचौरी और जलेबी बाँध दीजिए," – उसने आग्रह किया।
दुकान के मोटे और हँसमुख मालिक, गुप्ता काका, हँसते हुए बोले –
"अरे बिटिया, तुम्हारी कचौरी और जलेबी तो हमने पहले ही बाँध कर रखी थी!"
गुप्ता काका ने पैकेट वैदेही को दिया। उसने पैसे देते हुए पूछा –
"जय स्कूल जा रहा है न? उसने कहीं छुट्टी तो नहीं कर ली?"
तभी गुप्ता काका के पीछे से आठ साल का जय कूदता हुआ बोला –
"नहीं दीदी, मैं तो कब का तैयार हूँ!"
वैदेही हँसी और मिठाइयों का पैकेट लेकर घर चली आई।
वैदेही का घर
घर पहुँचकर, वैदेही ने तुलसी के पौधे को प्रणाम किया और मंदिर से लाया हुआ फूल वहाँ अर्पित किया। फिर वह भीतर आई, जहाँ उसके पिता शिवनंदन शुक्ला अखबार पढ़ रहे थे।
"आ गई आप वैदेही?" – उन्होंने बिना देखे ही कहा।
"बाबा, आपको कैसे पता चला कि मैं आई?"
शिवनंदन जी ने अखबार मोड़ते हुए कहा –
"तुम्हारी पायल की आवाज़ से, जिसे मैं बचपन से तुम्हें पहनाता आया हूँ।"
वैदेही हँसते हुए बोली –
"आपको सब पता होता है, बाबा। अच्छा, अब जल्दी से नाश्ता कर लीजिए।"
नाश्ता कराने के बाद, वैदेही स्कूल के लिए निकल गई और उसके बाबा रामानंद आश्रम चले गए। इस आश्रम की देखभाल शिवनंदन जी ही करते थे, जिसे उनके पुराने मित्र वीरेंद्र प्रताप सिंह ने स्थापित किया था। वीरेंद्र सिंह इंदौर के एक शाही परिवार से थे और व्यवसाय के सिलसिले में साल में एक बार अयोध्या आते थे। उन्होंने वैदेही को हमेशा अपनी बेटी की तरह माना और उसे बहुत प्यार दिया था।
स्कूल की सुबह
वैदेही जैसे ही स्कूल पहुँची, प्रार्थना की घंटी बजने में कुछ ही मिनट बचे थे। वह जल्दी से प्रिंसिपल ऑफिस में हाज़िरी दर्ज कर आई और फिर असेंबली के लिए मैदान में पहुँची।
बच्चों की प्रार्थना समाप्त होते ही, सब अपनी-अपनी कक्षाओं में चले गए। वैदेही भी स्टाफ रूम में अपना सामान लेने पहुँची, तभी उसकी सहकर्मी शालिनी हँसते हुए आई –
"गुड मॉर्निंग वैदेही!"
वैदेही मुड़कर बोली –
"तो आ ही गईं आप!"
शालिनी ने मज़ाकिया अंदाज़ में कहा –
"यार, तुम्हारी तरह मैंने अयोध्या को जगाने का ठेका नहीं ले रखा, इसलिए मैं थोड़ी देर से उठती हूँ!"
दोनों हँस पड़ीं और फिर वैदेही अपनी कक्षा में चली गई।
रामानंद आश्रम
शिवनंदन जी आश्रम पहुँचे, जहाँ विधवाओं, बुजुर्गों और अनाथ बच्चों की देखभाल की जाती थी। वह रिटायरमेंट के बाद पूरा समय यहाँ बिताते थे। आश्रम में महिलाएँ हस्तशिल्प बनाकर आत्मनिर्भर बन रही थीं, वृद्धजनों की सेवा हो रही थी और अनाथ बच्चों को शिक्षा दी जा रही थी।
दोपहर हो गई थी, लेकिन शिवनंदन जी ने अभी तक खाना नहीं खाया था। तब मैनेजर दुबे जी बोले –
"सर, खाना लगवा दूँ?"
"अभी नहीं, दुबे जी," – शिवनंदन जी ने किसी फाइल पर ध्यान केंद्रित करते हुए कहा।
तभी एक चिरपरिचित आवाज़ आई –
"अभी क्यों नहीं बाबा? अभी ही खाएँगे आप!"
दुबे जी ने देखा तो वैदेही टिफिन लेकर भीतर आ रही थी।
"आप यहाँ क्या कर रही हैं?" – शिवनंदन जी ने पूछा।
"आपको खाना खिलाने आई हूँ," – वैदेही ने मुस्कुराकर कहा और टिफिन खोलने लगी।
राजस्थान – रात का समय
राजस्थान एक खूबसूरत राज्य है, जिसकी शान वहाँ की संस्कृति और राजपूत आन-बान-शान में बसती है। पर इस शहर में एक व्यक्ति था, जो सबसे अलग, गुस्सैल और अकेला था – रणविजय सिंह।
रणविजय एक सफल व्यापारी था, लेकिन उसका अकेलापन उसे क्रूर और कठोर बना चुका था। उसके परिवार को व्यापारिक दुश्मनी में खोने के बाद, वह जीवन में सिर्फ पैसे और ताकत को ही सबसे बड़ा मानने लगा था।
उसकी गाड़ी जैसे ही महल के दरवाज़े पर रुकी, नौकर दौड़कर उसकी सेवा में लगे।
"हुकुम, खाना परोसा जाए?" – एक नौकर ने डरते हुए पूछा।
"हम्म, लगाओ, मैं आता हूँ," – रणविजय बोला और कमरे में चला गया।
तभी उसका फोन बजा। फोन उठाते ही उसने कठोर स्वर में पूछा –
"काम हुआ या नहीं?"
दूसरी ओर से घबराई आवाज़ आई –
"नहीं साहब, उस लड़की ने ज़मीन देने से मना कर दिया।"
रणविजय ने ठहाका लगाया –
"एक मामूली लड़की की इतनी हिम्मत? अब मैं खुद देखूँगा कि वो मुझे ‘ना’ कैसे कहती है!"
अयोध्या – छत पर एक बेचैन रात
वैदेही छत पर खड़ी चाँद को निहारते हुए बुदबुदाई –
"कोई ज़मीन के लिए इतना पागल कैसे हो सकता है, महादेव?"
वहीं, राजस्थान में रणविजय बालकनी से आसमान की ओर देखते हुए बोला –
"अब मैं तुम्हें दिखाऊँगा कि रणविजय सिंह को 'ना' कहना क्या होता है।"
(कहानी जारी रहेगी...)